Tuesday, April 15, 2014

'आम आदमी पार्टी' से छोटा होता 'आम आदमी' और बड़ी होती 'पार्टी'




'आम आदमी पार्टी' से छोटा होता 'आम आदमी' और बड़ी होती 'पार्टी'
 

इमरजेंसी के लगभग ३५ वर्षों बाद देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसी मुहिम शुरू हुई जिसे सत्तानशीनों के अहंकार और ताक़त के नाजायज़ इस्तेमाल और आम आदमी की गुस्से में बदलती हुई बेबसी ने धीरे धीरे एक जन आंदोलन का रूप दे  दिया. एक ऐसा जनआंदोलन जिसकी ताक़त के छाँव तले उदय हुआ एक नए राजनीतिक दल का. एक ऐसा राजनीतिक दल जिसने राजनीती के तमाम विश्लेषको को सकते में ला दिया. एक ऐसा राजनीतिक दल जिसकी नींव, औचित्य, और ताक़त सब कुछ आम आदमी था.वो आम आदमी जो त्रस्त था  राजनीतिक राजाओं से जो चुनाव दर चुनाव हक़ समझते आये थे  उस पर हुक़ूमत करने का. वो आम आदमी जो देश और अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित था . वो आम आदमी जो एक अर्से से बदलाव कि उम्मीद में बैठा था  परन्तु जिसे कभी कोई विकल्प ना तो दिया गया न ही उसके लिए किसी विकल्प को खड़ा होने दिया गया.  एक ऐसा राजनीतिक दल जिसने अपाहिज हो चुके आम आदमी और लोकतंत्र को दुरुस्त करने के लिए एक नयी तरह की राजनीति की परिभाषा गढ़ी. एक ऐसी राजनीति, जिसने आम आदमी को एक उम्मीद दी. एक ऐसा राजनीतिक दल जो एक विकल्प के रूप में आम आदमी के सामने खड़ा हुआ. एक ऐसा राजनीतिक दल जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी के आक्रोश, कुछ चिर परिचित समाज सेवको के आंदोलन और सत्तानशीं राजनीतिक दल के अहंकार से पैदा हुआ. इस दल  ने खुद को आम आदमी का, आम आदमी के द्वारा और आम आदमी के लिए बताते हुए अपना नाम 'आम आदमी पार्टी '  रखा और बहुत ही काबिलेतारीफ रचनात्मक, सुनियोजित और संगठित तरीके से प्रचार करते हुए आम लोगों के बीच अपना विश्वास पैदा किया और २०१३ के दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय हासिल की.

आम आदमी पार्टी नाम के इस राजनीतिक दल ने बहुत ही अलग तरह की राजनीति करने की जो बात कही वो उन्होंने शून्य से शुरुआत करते हुए अपने आप को एक पूर्ण विकल्प के रूप में स्थापित करते हुए चरित्रार्थ भी की. उनके इस दावे ने कि राजनीति में अगर नीयत साफ़ हो तो ईमानदारी से भी राजनीति की जा सकती है, उनको सबसे बड़ा राजनीतिक दल न होने के बावजूद भारत की राजधानी जहाँ से पूरे देश की राजनीति निर्धारित होती है, वहाँ सरकार बनाने का मौका दे दिया.

बहुत तेज़ी से बदलते इन ऐतिहासिक घटनाक्रमों में वो दिन भी आ गया जब आम आदमी पार्टी के सृजनकर्ता श्री अरविन्द केजरीवाल ने राम लीला मैदान से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. शपथ लेने के बाद उनका पहला भाषण बहुत ही सराहनीय था परन्तु एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही वो यह थी कि यह सुनिश्चित करना होगा की जिस वजह से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ है, उसी वजह से उनके खिलाफ भी किसी पार्टी को जन्म न लेना पड़े.

यह वो वक़्त था जब आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता अपनी चरम सीमा पर थी और पार्टी के अठाईस विधायक उतने ही जोश और साहस से तैयार थे आम आदमी के मन में जगायी हुई उम्मीद को पूरा करने के लिए.

पर जितनी तेज़ी से घटनाक्रम उन्हें शीर्ष पर लेकर आये थे उतनी ही तेज़ी से उनके शीर्ष पर पहुँचने के बाद घटनाक्रम बदलते हुए नज़र आ रहे हैं. 

उस वक़्त से लेकर अभी तक लगभग तीन महीनों में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे यह लगने लगा है कि आम आदमी पार्टी में भी वही राजनीति हावी होती जा रही है जिसके खिलाफ खड़े होकर वो सत्ता में आये थे.हो सकता है कि उन सब चीज़ो का परिमाण आम आदमी पार्टी में दूसरे राजनीतिक दलों से कम हो याँ उनमें साफ़ नीयत वाले लोगों की संख्या दूसरे दलों से ज़यादा हो, परन्तु अगर तरीका भी वैसा होने लगा हो जैसा दूसरे राजनीतिक दलों का है तो जिस सिद्धांत ने आम आदमी पार्टी की नींव रखी थी वो सिद्धांत ही कांपता हुआ दिखाई देता है.

चाहे अपने ऊपर हुए स्टिंग ऑपरेशन को सिरे से नकार देना जसमें साफ़ साफ़ पार्टी के किसी कद्दावर नेता द्वारा बिना काग़ज़ों में दिखाए, पैसों के लेन देन के तरीके बताये गए हों याँ अपने कानून मंत्री को हर बात के लिए सही ठहराने की कि गयी कोशिश. चाहे चिल्ला चिल्ला के दूसरे दलों को गलत और खुद को सबसे ईमानदार  बताना हो या हर बात में दुसरे दलों को भ्रष्ट और बेईमान कहना हो. चाहे खुद पर उठते सवालो को दूसरे दलों की साजिश बताना हो या अपने खिलाफ दिखाई जाने वाली हर खबर को बिकाऊ मीडिया का षड़यंत्र बता के ख़ारिज करना हो. सत्ता सँभालते ही जिस प्रकार से जल्दबाज़ी में कुछ लोक लुभावन घोषणाएं की गयी और जिस प्रकार से उसका प्रचार किया गया उस पर सवाल उठना तो लाज़िमी हैं. ज़मीनी तौर पर जिस ढांचे को खराब कह कर सत्ता के दरवाज़ो को दस्तक दी थी, उसके लिए कोई ठोस कदम न उठाया जाना और शीघ्रतिशीघ्र लोकलुभावन घोषणाएं करना कई सवालों को जन्म देता है. लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा और बार बार लोकसभा के प्रतियाशियों की सुचि घोषित करने की तारिख देना और हर बार उसी दिन श्री अरविन्द केजरीवाल का भ्रष्टाचारियो की सुचि या गैस के दामो को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर देना सुनियोजित घटनाक्रम भी ज़रूर लगते हैं. लोकपाल बिल का नाम लेकर मुख्मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना जो पहले से ही कुछ कुछ सुनियोजित कदम लग रहा था उसे पार्टी के अपने ही एक संस्थापक सदस्य द्वारा लिखित और सुनियोजित कहना आम आदमी पार्टी को फिर से कटघरे में खड़ा कर देता है. विधायक बिन्नी से लेकर सविता भट्टी तक पार्टी से किनारा करने वाले हो या पार्टी से जुड़ने वाले साफ़ छवि वाले चेहरों के साथ साथ धुंधली और ख़राब छवि वाले लोग हो, वैसी ही राजनीति दिखाता है जैसी हमेशा से हम देखते आये हैं. चाहे टिकट बटवारे को लेकर अपनों का रूठना हो या उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया पर उठते सवाल, आम आदमी पार्टी को दूसरे दलों से कहीं भी अलग नहीं करते. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के बाद श्री योगेन्द्र यादव और श्री अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह से सिर्फ श्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोला उसे ऐसा लगने लगा है जैसे जो लड़ाई एक साफ़ सोच से एक खराब सोच के खिलाफ शुरू हुई थी वो एक ही व्यक्ति और दल को सत्ता में आने से रोकने भर पर ही केंद्रित होकर रह गयी है. गुजरात दौरे के दौरान गिरफ्तारी की खबर हो याँ दिल्ली में सुनियोजित तरीके से एकत्रित होकर पत्थरबाजी के घटनाक्रम का हिस्सा बनना हो जिसे चुनाव आयोग ने भी आचार संहिता का उल्लंघन माना हो तो सवाल उठना भी स्वाभाविक है. जिस प्रकार से हर सवाल को सिरे से नकार कर खुद को पीड़ित बना के प्रचार किया उसे आम आदमी पार्टी और दूसरे किसी दल में कोई ख़ास फर्क नज़र नहीं आता. श्री योगेन्द्र यादव का गुडगाँव की एक रैली में यह कहना कि श्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन्ने से देश का विभाजन होगा और मुसलमानो को अलग देश मांगना पड़ेगा, वैसी ही ओछी राजनीति का परिचय देता है जिसके विरुद्ध आम आदमी पार्टी का उदय हुआ था. अमेठी में डॉ. कुमार विश्वास एक अलग लड़ाई लड़ते हुए प्रतीत होते हैं और आम आदमी पार्टी किसी और ही दिशा में प्रयास करती नज़र आती है. कैमरा पर श्री अरविन्द केजरीवाल का अपनी ही इंटरव्यू का सम्पादन करवाते हुए दिखना हो या उसी मीडिया को बार बार बिकाऊ कहना कहीं न कहीं सुर्खियो में बने रहने का तरीका सा नज़र आने लगा है.

दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से लेकर अब तक आम आदमी पार्टी को जिस तरह से आम आदमी राजनीति करते हुए देखता है, उनका लगभग हर कदम उन्हें दूसरे राजनीतिक दलों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है. उनका हर कदम वैसी ही राजनीति करते हुए दिखाता है जैसी दूसरे राजनीतिक दल करते हैं. जो एक अलग सी साफ़ सी ईमानदारी की राजनीति का एहसास हुआ था, वो एहसास कहीं खोता सा जा रहा है. ऐसा लगता है जैसे आम आदमी पार्टी से पार्टी का उदय हो रहा है जिसमें आम आदमी पीछे और पीछे छूटता जा रहा है. ऐसा लगता है की आम आदमी पार्टी में पार्टी बहुत बड़ी हो गयी है और आम आदमी का कद एक बार फिर से छोटा रह गया है.

अगर मेरे कहे हुए व्यक्तव्यों को आम आदमी पार्टी सिरे से नकारना चाहे और उन्हें लगे कि आम आदमी उनकी पार्टी में एक नाम भर नहीं है और वो आज भी उसी सचाई, ईमानदारी और निष्ठां से व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्हें कम से कम एक बार अपने अंदर झाँक कर आत्मावलोकन करने की आवश्यकता ज़रूर है क्यूंकि सवाल हर आम आदमी के मन में उठ रहे हैं जिनके जवाब आम आदमी जानना चाहता है क्यूंकि यह जो पार्टी आम आदमी के नाम से बनी है उससे आम आदमी की एक उम्मीद जुडी हुई है जो शायद बड़ी मुश्किल से जागी है.